हरिद्वार : आज मंगलवार 4 जुलाई से श्रावण मास आरंभ हो रहा है। श्रावण मास का समापन 31 अगस्त गुरुवार श्रावण पूर्णिमा को होगा। इस बार श्रावण मास अधिकमास होने के कारण 59 दिन का है। इस बार श्रावण मास में 8 सोमवार होंगे। यह दुर्लभ संयोग 19 वर्ष पूर्व सन 2004 में श्रावण मास में हुआ था। अधिकमास में भगवान विष्णु की पूजा का महत्व है जिनका नाम पुरुषोत्तम होने के कारण अधिकमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। इस मास के अधिपति श्रीहरि हैं। श्रावण मास के प्रथम दिन ही मंगला गौरी व्रत है। इस दिन सुहागन महिलाएं माता पार्वती और भगवान भोलेनाथ की पूजा करती हैं। माता गौरी को सोलह श्रृंगार की सामग्री अर्पित की जाती है। भगवान शिव और माता गौरी की कृपा से संतान, दांपत्यसुख और पति को दीर्घ आयु प्राप्त होती है।
चन्द्रमा मन का संकेतक है और वह भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान है। ‘चंद्रमा मनसो जात:’ यानी ‘चंद्रमा मन का स्वामी है’ और मन के नियंत्रण और नियमण में चंद्रमा का विशेष योगदान है। वे व्यक्ति जिनकी कुंडली में चन्द्रमा अपनी नीच राशि वृश्चिक में स्थित है अथवा सूर्य, शनि या राहु, केतु के साथ युति में है। उन्हें श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का दुग्धाभिषेक करना चाहिए। भगवान शंकर मस्तक पर चंद्रमा को नियंत्रित कर उक्त साधक या भक्त के मन को एकाग्रचित कर उसे अविद्या रूपी माया के मोहपाश से मुक्त कर देते हैं। भगवान शंकर की कृपा से भक्त त्रिगुणातीत भाव को प्राप्त करता है और यही उसके जन्म-मरण से मुक्ति का मुख्य आधार सिद्ध होता है। श्रावण मास के सोमवार का व्रत करने वाले व्यक्ति को स्नान के उपरांत सर्वप्रथम सूर्यदेव को जल अर्पित करना चाहिए। इसके बाद भगवान शिव को जलाभिषेक करना चाहिए। तदोपरांत व्रत का संकल्प लेकर भगवान शिव एवं माता पार्वती का श्रंगार करके षोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करना चाहिए। व्रत करने वाले व्यक्ति को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए। श्रावण मास के सोमवार का व्रत करने से भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा परिवार पर बनी रहती है और मनोकामना की पूर्ति होती है।
श्रावण मास के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- “जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें श्रावण मास प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था में श्रावण मास में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिवजी को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके कारण महादेव के लिए यह मास विशेष हो गया।
इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा के अनुसार, मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए श्रावण मास में ही घोर तप कर शिवजी की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे। भगवान शिव को श्रावण मास प्रिय होने का अन्य कारण यह भी है कि भगवान शिव इस महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।
पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी श्रावण मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की, लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम ‘नीलकंठ महादेव’ पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही कारण है कि श्रावण मास में भोलेनाथ को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। ‘शिवपुराण’ में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में आराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है। शास्त्रों में वर्णित है कि श्रावण मास से पूर्व भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसलिए यह समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों का होने वाला एक वैदिक यज्ञ है। जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे चातुर्मास भी कहा जाता है। इस समय सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए श्रावण मास के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।