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अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस : जानें गिरमिटिया के बारें में महत्वपूर्ण जानकारी एवं रोचक तथ्य………………

by anumannews
देहरादून : गिरमिटिया _”…है अल्बत मजूरी, बाकी खड़ा है धन कुछ दुरी गांव अब का पठैये, कैसन मुंह देसवा दिखैये खाली झोरी बांधे वापस, गांव अब कैसे जाइये कैसे भला अब चली, दुई मुट्ठी एक दिन के मजूरी कैसे भला अब चली…”_  यह शब्द सूरीनाम के राजमोहन के दुःख और मजबूरी को प्रगट करतें हैं।
गिरमिटिया शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी शब्द ‘एग्रीमेंट’ (Agreement ) से हुई है। एग्रीमेंट को हिंदी में ‘अनुबंध’ कहते हैं । यह उस समय बात है जब भारत तथा दूसरे अन्य देशों पर अंग्रेजों का राज था। अंग्रेजों के विरुद्ध जहां भी विद्रोह होता था उसे दबाने के लिए अंग्रेज लोग अन्य देशों के सिपाहियों या फौजियों की मदद से बगावत को निष्फल कर देते थे। जैसे अफ्रीका के किसी देश में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत होती थी तो वे भारतीय फौजियों की मदद से वहां की बगावत को दबा देते थे और यदि भारत में बगावत की सुगबुगाहट होती थी तो वे अफ्रीका के किसी देश के फौजियों को भारत में तैनात कर देते थे। हमने बचपन से सुना है कि अंग्रेजों के राज में सूरज कभी डूबता नहीं था।अंग्रेजों को भारतीय सैनिकों की ही ज़रूरत नहीं पड़ती थी उनको भारतीय मजदूरों की भी जरूरत पड़ती थी। फिजी, माॅरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम इत्यादि देशों में गन्ने की खेती करने के लिए , सोने एवं हीरों की खानों में काम करने के लिए या रेलों की पटरियों को बिछाने के लिए अंग्रेज लोग ‘एग्रीमेंट’ कराकर भारतीय मजदूरों को दूसरे देशों में ले जाते थे। ‘एग्रीमेंट’ का अपभ्रंश नाम ‘गिरमिट’ पड़ गया। कुछ एजेंट बिना एग्रीमेंट किये ही बहला – फुसलाकर या जोर–जबरदस्ती से ये-केन-प्रकारेण भारतीय मजदूरों को ले जाते थे। ये सभी भारतीय मजदूर ‘गिरमिटिया’ कहलाये।
 गिरमिटियाओं का पहला ठिकाना फिजी देश था। दक्षिण अफ्रीका में रहकर गांधी जी अपने को ‘प्रथम गिरमिटिया’ बताते थे। सन् 1834 से 1917 तक ऐसा ही होता रहा। गोखले, गांधी जी,भवानी दयाल संन्यासी के विरोध के कारण ‘अनुबंध’ ( एग्रीमेंट ) पर भारतीय मजदूरों को दूसरे देशों में ले जाने की दुष्प्रथा पर सन् 1917 ई. में रोक लगाई जा सकी।
 यद्यपि अनुबंध की अवधि समाप्त हो गई थी लेकिन वे गिरमिटिया मजदूर धनाभाव के कारण भारत वापस नहीं लौट सके। वे गिरमिटिया मजदूर सदैव के लिए उन्हीं देशों में बस गए। वहां उन्होंने खूब धन कमाया और उच्चतम पदों तक भी पहुंचे। वे वहां राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री या सेनाध्यक्ष भी बने। आज भी अफ्रीका या वेस्टइंडीज के खिलाड़ियों के नाम हिंदू हैं । वे भारतीय संस्कृति को भुला नहीं पाये हैं। उनका खान–पान, नामकरण, पहनावा, रीति-रिवाज, आचार–विचार पूरी तरह से भारतीय हैं। होटलों या प्रतिष्ठानों के नाम हिंदू हैं। उनके दिलों में आज भी भारत या हिंदुस्तान बसता है। उनकी रगों में भारतीय खून बहता है। वे भारत से अपना रिश्ता भूल नहीं पाये हैं। वे अपने पूर्वजों की भारत की मिट्टी और संस्कृति से जुडे रहना चाहते हैं। वे भारत में अपने पूर्वजों के पुराने गांवों और मकानों को खोज रहे हैं। वे अपने सगे-संबंधियों से मिलने आज भी आते हैं और अपनापन पाकर अभिभूत हो जातें हैं। वे वहां मठों के पुजारी हैं या कथावाचक भी हैं।
कथावाचकों ने बहुत से देशों के नामों को रामकथा से जोड़ दिया है, उदाहरण के लिए माॅरीशस का मारीच से जोड़कर उसे ‘मारीच’ देश बताया जा रहा है , सूरीनाम को ‘श्रीराम’ देश बताया जा रहा है । माॅरीशस, मालदीव के ऐसे ही कई गोस्वामियों ने मुझसे से फेसबुक और वाट्सअप पर सम्पर्क किया है।  कई मित्रों के नाम के पीछे उनके पुरखों का नाम लिखा रहता है, जैसे रेवती जवालाप्रसाद, हरिप्रसाद, रामगुलाम, जगन्नाथ। वे गीता, रामायण, और अन्य ग्रंथो का पाठन नियमित रूप से करतें हैं। कइयों के  पूर्वज काशी के आसपास से, पूर्वांचल बलिया, आजमगढ़, आरा, बक्सर  आदि से गये हैं।  वे अपने पूर्वजों को ‘अतीत’ बताते हैं। गोस्वामियों का एक नाम ‘अतीत’ भी है। ‘अतीत’ शब्द ‘अतिथि’ से बना है। “अतीत या अतिथि उस व्यक्ति या साधु को कहते हैं जो बिना  किसी  पूर्व सूचना के किसी अतिथिसत्कारक या यजमान के घर ठहरता है।”
 हर साल १० से १५ हज़ार मज़दूर, जिनमें पण्डित, आदिवासी, हरिजन, मुस्लिम लोग थे, जो सभी गरीब थे, कि उनका जीवनयापन करना कठिन था, गिरमिटिया बनाकर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, ट्रिनीडाड, टोबेगा, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि को ले जाये जाते थे। यह सब सरकारी नियम के अंतर्गत था। इस तरह का कारोबार करनेवालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था।
सन 1833 में ब्रिटेन ने ‘गुलामी’ प्रथा ख़त्म की. लेकिन अंग्रेजों का शोषण समाप्त नहीं हुआ था। सन् 1834 से अंग्रेजों ने ‘गिरमिटिया’ प्रथा शुरू की. अपनी उपनिवेशवादी इरादों के साथ अंग्रेजों ने अफ्रीका, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिडाड जैसे देशों में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने अविभाजित भारत से मजदूरों को गुलाम बनाकर इन देशों में भेजना शुरू किया. ‘गुलाम’ और ‘गिरमिट’ में फ़र्क ये गुलामी कुछ अलग थी। इसके तहत भारतीय मज़दूरों को उपनिवेश वाले तमाम देशों के शुगर प्लान्टेशन पर काम करने के लिए एक निर्धारित अवधि तक (प्राय: पाँच से दस साल तक) काम करने के लिए एक एग्रीमेंट कराया जाता था। इन लोगों को ‘एग्रीमेंट पर लाया गया मजदूर’ कहा गया। ‘एग्रीमेंट’ शब्द आगे चलकर ‘गिरमिट’ और फिर ‘गिरमिटिया’ शब्द में परिवर्तित हो गया। गुलाम पैसा चुकाने पर भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता था, लेकिन गिरमिटियों की आज़ादी ऐसी थी कि वे पांच साल बाद छूट तो सकते थे, लेकिन उनके पास वापस भारत लौटने को पैसे नहीं होते थे. उनके पास वहां रूकने के अलावा और कोई चारा ही नहीं होता था और अधिकाँश के साथ यही हुआ, जिसे उन्होंने अपनी नियति मान लिया। ‘गिरमिटिया’ होने का अर्थ है दूसरे के लिए परिश्रम करना। न अपनी जमीन, न फसल और न कोई लाभांश। अतः ‘गिरमिट’ शब्द एक दुःख भरा शब्द है,  जिसका सपाट अर्थ हांड-तोड़ मेहनत, पर बहुत कम मजदूरी। ऊपर से शारिरिक शोषण। कष्टकारी यात्रा और अनिश्चित भविष्य। चीत्कार भरी गूँगी आवाजें!
सामान्यतः गिरमिटिया चाहे औरत हो या मर्द उसे विवाह करने की छूट नहीं होती थी। यदि कुछ गिरमिटिया विवाह करते भी थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे। जैसे औरत किसी को बेची जा सकती थी और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे। गिरमिटिया पुरुषों के साथ 40% महिलाएँ जाती थीं, युवा औऱ सुन्दर औरतों को अंग्रेज मालिक रख लेते थे। उनका आकर्षण खत्म होने पर यह औरतें मजदूरों को सौंप दी जाती थीं। गिरमिटियों की संतानें मालिकों की संपत्ति होती थीं। मालिक चाहे तो बच्चों से बड़ा होने पर अपने यहां काम कराएं या दूसरों को बेच दें। गिरमिटियों को केवल जीवित रहने मात्र भोजन, वस्त्रादि दिये जाते थे। वे 12 से 18 घंटे तक प्रतिदिन कमरतोड़ मेहनत करते थे। अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते सैकड़ों मज़दूर अकाल मौत मर जाते थे। इनके मालिकों के अत्याचार की कहीं सुनवाई नहीं थी। गिरमिटिया दस्तावेज कुछ और ही कहानी कहते हैं। एक ग़ुलाम देश के लोगों को अच्छी ज़िंदगी के सपने दिखा एक अनजान, अज्ञात देश में ले जाकर उनका शोषण करना गिरमिटिया प्रथा का नंगा सच है।
सात समंदर पार अपनों से दूर, अपने वतन से दूर ये मज़दूर अपने साथ हो रहे सुलूक के विरोध में कुछ भी करने में असमर्थ होते थे जिसका लाभ ये अंग्रेज़ लोग उठाते थे। ये हर एक मजदूर की कहानी थी। रोते थे, बिलखते थे और फिर अपनी नियति मानकर सब कुछ स्वीकार कर लेते थे। एग्रीमेंट की वजह से घर भी वापस नहीं आ पाते थे। अनपढ़, असंगठित और न्याय के विचार से शून्य ये कामगार मजदूर धनी अंग्रेज़ ठेकेदार के हाथ बंधुआ मज़दूरी करने को मजबूर थे।  ये सिलसिला कई सालों तक चलता रहा। इन देशों को अपने खून-पसीने से बसाने वाले इन मजदूरों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी वहां काम करने जाती रहीं। अपने दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता से बसाए गए ये देश इनकी मातृभूमि तो न थी, लेकिन इनकी कर्मभूमि ज़रूर रही। इसीलिये ‘गिरमिट मुक्त’ होने पर बहुतों ने उसी स्थान पर बस जाना पंसद किया। वे इन देशों में या तो स्वतंत्र मज़दूर बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविका कमाने लगे। लेकिन इनका दुःख यहां ख़तम नहीं हुआ।
ब्रिटिश उपनिवेश में प्रवासी भारतीयों की काफ़ी बड़ी संख्या हो गई। प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ी और वे समृद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहने वाले अंग्रेज़ उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी तक बन गये। अंग्रेजो मालिकों ने इस बात को भुला दिया कि प्रवासी भारतीयों के पुरखों को वे ही वहां लेकर आए थे और गिरमिटिया मज़दूरों की सेवाओं से भारी लाभ उठाया था। उन्होंने उन उपनिवेशों की समृद्धि में उतना ही योगदान दिया था, जितना वहां के गोरे निवासियों ने। इस तरह गिरमिट प्रथा के कारण जातीय भेदभाव पर आधारित नयी समस्याएँ उठ खड़ी हुईं, जिनका अभी तक समाधान नहीं हो सका है।
गिरमिटिया प्रथा का अंत  1917 में हुआ जब इस प्रैक्टिस को निषिद्ध घोषित किया गया।  इस क्रूर प्रथा के खिलाफ महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से अभियान प्रारंभ किया था। गोपाल कृष्ण गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मार्च 1912 में गिरमिटिया प्रथा समाप्त करने का प्रस्ताव रखा था। दिसंबर 1916 में कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भारत सुरक्षा और ‘गिरमिट प्रथा अधिनियम’ प्रस्ताव रखा। इसके बाद फरवरी 1917 में अहमदाबाद में गिरमिट प्रथा विरोधी एक विशाल सभा आयोजित की गयी, जिसमे सी.एफ. एंड्रयूज और हेनरी पोलाक ने इसके विरोध में भाषण दिया था। गिरमिट विरोधी अभियान जोर पकड़ता गया और फलस्वरूप मार्च 1917 में गिरमिट विरोधियों ने अंग्रेज सरकार को एक अल्टीमेटम दिया कि मई तक यह प्रथा समाप्त की जाए। लोगों के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए 12 मार्च को ही सरकार ने अपने गजट में यह निषेधाज्ञा प्रकाशित कर दी कि भारत से बाहर के देशों को गिरमिट प्रथा के तहत मजदूर न भेजे जाएँ।
आजकल जब हम फिजी के महेन्द्र सिंह चौधरी, मॉरीशस के शिवसागर रामगुलाम, जगन्नाथ या वेस्टइंडीज के कालीचरण, या गिरमिटिया समाज के लेखकों के नाम सुनतें हैं तो हम गर्व का अनुभव करतें हैं। उनके पूर्वजों के कष्टकारी जीवन और श्रम-साध्य जीवन और तपस्या के प्रतिफल से वे अपने जीवट के कारण ही प्रगति के शिखर तक पँहुच पाएं हैं। हम उनको नमन करतें है कि उन्होंने अपनी सभ्यता, धर्म और संस्कृति, अपने संस्कारो को नहीं छोड़ा और हिन्दी और हिन्दुस्तानी को और समृद्ध किया है।
आइये, ‘अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस’ पर हम अपने उन भारतीय भाई बहनों का स्मरण करें जिनके माता-पिता कितनी मजबूरी और निर्धनता की क्रूर विवशता के कारण मज़दूर बनकर विदेश चले गए, शोषित, वंचित, प्रताड़ित और अपमानित होकर अपना नया देश बनाया, उन्नति की और वहाँ की विपरीत परिस्थितियों में अपनी कर्मठता से अपना विशिष्ट स्थान बनाया।

लेखक : नरेन्द्र सिंह चौधरी, भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं. इनके द्वारा वन एवं वन्यजीव के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किये हैं.